8 हिंदी वसंत


चिट्ठियों की अनूठी दुनिया

NCERT Solution

पाठ से

प्रश्न 1: पत्र जैसा संतोष फोन या एसएमएस नहीं दे सकता, क्यों?

उत्तर: फोन या एसएमएस क्षणिक सुख देते हैं। जैसे फास्ट फूड कभी भी पारंपरिक व्यंजनों का स्वाद नहीं दे सकते हैं, उसी तरह पत्र का स्थायित्व कभी भी फोन या एसएमएस द्वारा नहीं मिल सकता है। एक पत्र को बार बार पढ़ा जा सकता है। पुराने पत्र पुरानी यादों को ताजा करने में अहम भूमिका निभाते हैं, जबकि फोन पर की हुई बात वर्तमान में ही समाप्त हो जाती है। एसएमएस कुछ समय बाद मोबाइल से हटा दिए जाते हैं, क्योंकि नए एसएमएस के लिए जगह बनानी पड़ती है। इसके अलावा एसएमएस की अपनी सीमाएँ होती हैं। एक निश्चित लम्बाई से ज्यादा संदेश आप एक बार में नहीं भेज सकते हैं। पत्र के द्वारा आप पूरी रामकहानी बयान कर सकते हैं। भावनात्मक तौर पर भी पत्रों की शक्ति ज्यादा होती है।

प्रश्न 2: पत्र को खत, कागद, उत्तरम, लेख, जाबू, कडिद, पाति, आदि कहा जाता है। इन शब्दों से संबंधित भाषाओं के नाम बताइए।

उत्तर: पत्र को उर्दू में खत, कन्नड़ में कागद, तमिल में उत्तरम, लेख और कडिद तथा हिंदी में पाति कहा जाता है।

प्रश्न 3: पत्र लेखन की कला के विकास के लिए क्या-क्या प्रयास हुए?

उत्तर: पत्र लेखन की कला के विकास के लिए 1972 में स्कूल पाठ्यक्रम में पत्र लेखन शुरु किया गया। इसके अलावा पत्र लेखन प्रतियोगिता भी प्रारंभ की गई।

प्रश्न 4: पत्र धरोहर हो सकते हैं, लेकिन एसएमएस क्यों नहीं? तर्क सहित अपना उत्तर दीजिए।

उत्तर: एसएमएस को कुछ समय बाद हटाना पड़ता है ताकि नए एसएमएस के लिए मोबाइल में जगह बने। एसएमएस की भाषा में भाषा जैसी कोई चीज नहीं होती है और उसमे भावनात्मक रस का सख्त अभाव होता है। एसएमएस के जरिए विस्तृत बात नहीं हो सकती है। इसलिए उसमे निरंतरता भी नहीं हो सकती है। पत्रों की तरह एसएमएस को सहेज कर नहीं रखा जा सकता इसलिए उसे धरोहर नहीं बनाया जा सकता है।

प्रश्न 5: क्या चिट्ठियों की जगह कभी फैक्स, ई-मेल, टेलिफोन तथा मोबाइल ले सकते हैं?

उत्तर: ये बात बिलकुल साफ है कि चिट्ठियों की जगह एक धरोहर के मामले में संचार के आधुनिक साधन नहीं ले सकते हैं। लेकिन आधुनिक संचार साधनों से अथाह संभावनाएँ हैं। फैक्स, ई-मेल, टेलिफोन या मोबाइल का सबसे बड़ा फायदा है समय की बचत। पुराने जमाने में एक चिट्ठी को पहुँचने में सप्ताह भर का समय लगता था। आज ई-मेल के जरिये पलक झपकते ही आप दुनिया के किसी कोने में अपना सन्देश भेज सकते हैं। यहाँ तक कि छोटे मोटे कारोबार करने वालों को भी मोबाइल के कारण बहुत सुविधा मिली है। ज्यादातर निजी संस्थाओं में पूरा कारोबार ई-मेल के माध्यम से निबटाया जाता है। कागजी चिट्ठियों का भविष्य खतरे में लग रहा है। इससे कई नुकसान हुए हैं। खासकर से लोगों की भाषा पर से पकड़ उठती जा रही है। यथार्थ यही कहता है कि चिट्ठियाँ कुछ ही दिनों मे इतिहास की बात हो जाएंगी।

पाठ से आगे

प्रश्न 1: किसी के लिए बिना टिकट सादे लिफाफे पर सही पता लिखकर पत्र बैरंग भेजने में कौन सी कठिनाई आ सकती है? पता कीजिए।

उत्तर: जब किसी लिफाफे पर टिकट नहीं लगा होता है और वैसे ही उसे डाक से भेजा जाता है तो उसे बैरंग डाक कहते हैं। बैरंग शब्द अंग्रेजी शब्द BEARING का हिंदी अपभ्रंश है। अपभ्रंश का मतलब होता है बिगड़ा हुआ रूप। जब बैरंग डाक पहुँचाई जाती है तो डाक पाने वाले से निर्धारित शुल्क का दोगुना वसूला जाता है।

कई लोग डाक को निश्चित रूप से पहुँचाने के लिए बैरंग चिट्ठी भेजने का काम करते थे। कई बार छोटे बच्चे खेल खेल में अपने रिश्तेदारों को बैरंग डाक भेजा करते थे। अगर डाक महत्वपूर्ण होती थी तो पाने वाला कोई शिकायत नहीं करता था। लेकिन जब चिट्ठी गैर जरूरी निकलती थी तो उसके गुस्से का ठिकाना नहीं रहता था। आप अपने दादा दादी या नाना नानी से ऐसे किस्सों के बारे में पूछ सकते हैं।

प्रश्न 2: पिन कोड भी संख्याओं में लिखा गया एक पता है, कैसे?

उत्तर: पिन कोड में छ: अंक होते हैं। पूरे भारत को 8 डाक जोन में बाँटा गया है और पिन कोड का पहला अंक 1 से 8 में से कोई भी हो सकता है। जैसे, दिल्ली और आस पास के कुछ राज्यों के पिन कोड 1 से शुरु होते हैं। मुम्बई का पिन कोड 4 से शुरु होता है। पिन कोड के आखिरी अंक से किसी विशेष मुहल्ले या गाँव का पता चलता है। पिन कोड लिखा रहने से डाक विभाग को चिट्ठियों को उनके गंतव्य के हिसाब से छाँटने में सहूलियत होती है।

प्रश्न 3: ऐसा क्यों होता था कि महात्मा गांधी को दुनिया भर से पत्र ‘महात्मा गांधी-इंडिया’ पता लिखकर आते थे?

उत्तर: महात्मा गांधी की ख्याती दुनिया के कोने कोने में पहुँच चुकी थी। कई लोग उन्हें चिट्ठियाँ लिखा करते थे। उस जमाने में इंटरनेट या गूगल तो था नहीं कि सर्च करने पर पलक झपकते कोई जानकारी मिल पाती। इसलिए जो लोग गांधीजी का पता नहीं जानते थे वे केवल उनका नाम और इंडिया लिख देते थे। इस बात से यह भी पता चलता है कि डाक विभाग पर लोगों का भरोसा कितना पक्का था।