10 नागरिक शास्त्र


जाति, धर्म और लैंगिक मसले

श्रम का लैंगिक विभाजन

लैंगिक आधार पर श्रम का विभाजन एक ऐसा कड़वा सच है जो हमारे घरों और समाज में आज भी दिखाई देता है। अधिकांश घरों में चूल्हा-चौका और साफ सफाई के काम महिलाओं द्वारा या उनकी देखरेख में नौकरों द्वारा किये जाते हैं। घर के बाहर के काम पुरुषों द्वारा किये जाते हैं। सार्वजनिक जीवन पर अक्सर पुरुषों का वर्चस्व रहता है। महिलाओं को घर की चारदीवारी के भीतर ही सिमट कर रहना पड़ता है।

नारीवादी आंदोलन: जो आंदोलन महिलाओं को समान अधिकार दिलाने के उद्देश्य से किये जाते हैं उन्हें नारीवादी आंदोलन कहते हैं।

लेकिन हाल के वर्षों में लैंगिक मसलों को लेकर राजनैतिक गतिविधियाँ बढ़ गई हैं। इससे सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की स्थिति में काफी सुधार हुआ है। भारत का समाज एक पितृ प्रधान समाज है। फिर भी आज महिलाएँ कई क्षेत्रों में आगे बढ़ रही हैं।

अभी भी महिलाओं को कई तरह के भेदभावों का सामना करना पड़ता है। इसके कुछ उदाहरण नीचे दिये गये हैं:

  • पुरुषों की साक्षरता दर 76% है, जबकि महिलाओं की साक्षरता दर केवल 54% है।
  • ऊँचे पदों पर बहुत कम महिलाएँ देखने को मिलती हैं। कई जगह पर पुरुषों की तुलना में महिलाओं का वेतन कम होता है। पुरुषों की तुलना में महिलाओं को प्रतिदिन अधिक घंटे काम करना पड़ता है।
  • आज भी ज्यादातर परिवारों में लड़कियों की तुलना में लड़कों को अधिक प्रश्रय दिया जाता है। कन्या भ्रूण हत्या के कई मामले सामने आते हैं। इसलिए भारत का लिंग अनुपात महिलाओं के पक्ष में बिलकुल नहीं है।
  • महिलाओं पर होने वाले अत्याचार के मामले बढ़ते ही जा रहे हैं। ऐसी घटनाएँ घर में भी होती हैं और घर के बाहर भी होती हैं।
विश्व राजनीति में महिलाओं का प्रतिनिधित्व

Fig: विश्व के विभिन्न क्षेत्रों की संसदों में महिलाएँ

महिलाओं का राजनीति में प्रतिनिधित्व

  • भारतीय राजनीति में कई महिलाएँ प्रखर राजनेता हैं, लेकिन राजनीति में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बहुत ही खराब है। विधायिकाओं और मंत्रीमंडल में महिलाओं की संख्या बहुत कम है।
  • इस स्थिति को सुधारने के लिये स्थानीय स्वशासी निकायों की एक तिहाई सीटों को महिलाओं के लिये आरक्षित रखा गया है। लेकिन संसद और विधानसभाओं में अभी तक महिलाओं को आरक्षण नहीं मिल पाया है।

धर्म और राजनीति:

धर्म हमारे राजनैतिक और सामाजिक जीवन का एक अभिन्न हिस्सा है। कुछ देशों में राजनीति पर केवल बहुसंख्यक समाज की पकड़ है। इससे अल्पसंख्यक समुदाय को भारी नुकसान होता है। यह बहुसंख्यक आतंक को बढ़ावा देता है।

सांप्रदायिकता: जब राजनैतिक वर्ग द्वारा एक धर्म को दूसरे धर्म से लड़वाया जाता है तो इसे सांप्रदायिकता या सांप्रदायिक राजनीति कहते हैं।

राजनीति में सांप्रदायिकता के कई रूप हो सकते हैं:

कुछ लोगों को लगता है कि उनका धर्म अन्य धर्मों की तुलना में श्रेयस्कर है। ऐसे लोग दूसरे धर्म के लोगों पर अपना वर्चस्व जमाने की कोशिश करते हैं। इससे अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों में असुरक्षा की भावना भर जाती है।

अक्सर संप्रदाय के नाम पर ध्रुवीकरण की कोशिश की जाती है। अल्पसंख्यक समुदाय में भय का माहौल भरने के लिये धार्मिक चिह्नों, धर्मगुरुओं और भावनात्मक अपीलों का इस्तेमाल होता है। कई बार सांप्रदायिकता इतना उग्र रूप ले लेती है कि सांप्रदायिक दंगे हो जाते हैं।

भारत की जनसंख्या में विभिन्न धर्म

Fig: भारत की जनसंख्या में विभिन्न धर्म (REF: census India)

धर्मनिरपेक्ष शासन

  • वैसी शासन व्यवस्था जिसमें सभी धर्म को समान दर्जा दिया जाता है उसे धर्मनिरपेक्ष शासन कहते हैं।
  • भारत के संविधान के अनुसार भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है। भारत के संविधान में किसी भी धर्म को राजकीय धर्म का दर्जा नहीं दिया गया है।
  • भारत के नागरिकों को अपनी मर्जी से किसी भी धर्म को मानने की छूट है। धर्म के नाम पर भेदभाव की मनाही है।
  • लेकिन सरकार को धार्मिक मुद्दों में तब हस्तक्षेप करने की इजाजत है जब विभिन्न समुदायों में समंवय बनाने के लिये ऐसा करना जरूरी लगने लगे।

जाति और राजनीति

जाति व्यवस्था भारत के समाज की अनोखी विशेषता है। इस तरह की सामाजिक व्यवस्था किसी अन्य देश में नहीं पाई जाती है। जाति व्यवस्था के अनुसार हर जाति का एक तय पेशा होता है। किसी विशेष पेशे को किसी विशेष जाति में जन्म लेने वाला व्यक्ति ही अपना सकता है। किसी भी जाति के लोगों में अपनी जाति विशेष के प्रति गहरा लगाव देखने को मिलता है। इनमें से कुछ जातियों को ऊँची जाति माना जाता है जबकि अन्य जातियों को नीची जाति की श्रेणी में रखा जाता है।

जाति पर आधारित पूर्वाग्रह:

  • भारतीय समाज में आज भी जाति पर आधारित पूर्वाग्रह देखने को मिलते हैं। ग्रामीण इलाकों में आज भी नीची जाति के लोगों को ऊँची जाति के सामाजिक या धार्मिक अनुष्ठानों में भाग लेने की अनुमति नहीं मिलती है। ऊँची जाति के कई लोग तो दलितों की छाया से भी परहेज करते हैं।
  • लेकिन हाल के वर्षों में कई ऐसे सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन हुए हैं जिनके कारण जातिगत विभाजन कमजोर पड़ते जा रहे हैं। आर्थिक विकास, तेजी से होता शहरीकरण, साक्षरता, पेशा चुनने की आजादी और जमींदारों की कमजोर होती स्थिति की इसमें बड़ी भूमिका रही है।
  • अभी भी शादियाँ तय करने में जाति एक महत्वपूर्ण मुद्दा बन जाता है। आप किसी भी अखबार के वैवाहिक विज्ञापन को देख लीजिए। उन विज्ञापनों में जाति पर आधारित समूह दिखाई देंगे। लेकिन जीवन के अन्य मामलों में जाति का प्रभाव खत्म होता दिख रहा है।
  • ऊँची जाति के लोगों को सदियों से शिक्षा के बेहतर अवसर मिलने के कारण ऊँची जाति के लोगों ने आर्थिक रूप से अधिक तरक्की की। आज भी पिछड़ी जाति के लोग सामाजिक और आर्थिक विकास में पीछे चल रहे हैं।

राजनीति में जाति

  • भारतीय राजनीति में भी जाति की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। ज्यादातर चुनाव क्षेत्र में उम्मीदवार का चयन उस क्षेत्र की जातीय समीकरण के आधार पर होता है।
  • हर जाति के लोग राजनैतिक सत्ता में अपनी भागीदारी लेने के लिये अपनी जातिगत पहचान को अपने-अपने तरीके से व्यक्त करने की कोशिश करते हैं। कई जातियों ने मिलकर अपना गठबंधन भी बनाया है ताकि वे अच्छे तरीके से राजनैतिक मोलभाव कर सकें।
  • जाति समूहों को मुख्य रूप से ‘अगड़े’ और ‘पिछड़े’ वर्गों में बाँटा जा सकता है।
  • लेकिन जातिगत विभाजन से अकसर समाज में टकराव की स्थिति उत्पन्न होती है और हिंसा भी हो सकती है।

जातिगत असामनता

अभी भी जाति के आधार पर आर्थिक विषमता देखने को मिलती है। उँची जाति के लोग सामन्यतया संपन्न होते है। पिछड़ी जाति के लोग बीच में आते हैं, और दलित तथा आदिवासी सबसे नीचे आते हैं। सबसे निम्न जातियों में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या बहुत अधिक है। नीचे दिये गये टेबल से यह बात साफ हो जाती है।

गरीबी रेखा से नीचे वाले लोगों की जनसंख्या का प्रतिशत
जातिग्रामीणशहरी
अनुसूचित जनजाति45.8%35.6%
अनुसूचित जाति35.9%38.3%
अन्य पिछड़ी जातियाँ27%29.3%
मुस्लिम अगली जातियाँ26.8%34.2%
हिंदू अगली जातियाँ11.7%9.9%
ईसाई अगली जातियाँ9.6%5.4%
सिख अगली जातियाँ0%4.9%
अन्य अगली जातियाँ16%2.7%

REF: NSSO 55th round 1999 - 2000