10 इतिहास


भारत में मुद्रण की दुनिया

मुद्रण तकनीक के आने से पहले भारत में हस्तलिखित किताबों की पुरानी परंपरा रही है। इन किताबों को ताड़ के पत्तों या हाथ से बने कागज पर लिखा जाता था। लेकिन पांडुलिपी तैयार करने में बहुत मेहनत और समय लगता था। इसलिए ये किताबें आम जनमानस की पहुँच से दूर होती थीं।

भारत में प्रिंटिंग प्रेस को सबसे पहले सोलहवीं सदी के मध्य में पुर्तगाली धर्मप्रचारक लेकर आये थे। भारत में छपने वाली पहली किताबें कोंकणी भाषा में थी। 1674 तक कोंकणी और कन्नड़ भाषाओं में लगभग 50 किताबें छप चुकी थीं। तमिल भाषा की पहली पुस्तक कैथोलिक पादरियों द्वारा कोचीन में 1759 में छापी गई। कैथोलिक पादरियों ने मलयालय भाषा की पहली पुस्तक को 1713 में छापा था।

जेम्स ऑगस्टस हिकी ने 1780 से एक साप्ताहिक पत्रिका बंगाल गैजेट को संपादित करना शुरु किया। बंगाल गैजेट अपने आप को स्वतंत्र पत्रिका बताने में गर्व महसूस करता था। उस पत्रिका में ईस्ट इंडिया कम्पनी की आलोचना होती थी और कम्पनी के अधिकारियों के बारे में गप्प-शप छपते थे। इसके लिये गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने हिकी को सजा भी दी। उसके बाद सरकार की छवि ठीक करने के उद्देश्य से वारेन हेस्टिंग्स ने सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त अखबारों को प्रोत्साहन दिया।

राजा राममोहन रॉय के करीबी रहे गंगाधर भट्टाचार्य ने बंगाल गैजेट के नाम से पहला भारतीय अखबार निकालना शुरु किया।

मुद्रण संस्कृति ने भारत में धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक मुद्दों पर बहस शुरु करने में मदद की। शुरु में धार्मिक किताबों की बाढ़ सी आ गई जिससे लोगों को धर्म के बारे में बेहतर जानकारी मिलने लगी। इससे प्रभावित होकर लोग कई धार्मिक रिवाजों के प्रचलन की आलोचना करने लगे। 1821 से राममोहन राय ने संबाद कौमुदी प्रकाशित करना शुरु किया, जिसमें हिंदू धर्म के रूढ़िवादी विचारों की आलोचना होती थी। हिंदू रूढ़िवादियों ने ऐसी आलोचना को काटने के लिए समाचार चंद्रिका नामक पत्रिका निकालना शुरु किया। 1822 में फारसी में दो अखबार शुरु हुए जिनके नाम थे जाम-ए-जहाँ-नामा और शम्सुल अखबार। उसी साल एक गुजराती अखबार भी शुरु हुआ जिसका नाम था बम्बई समाचार

उत्तरी भारत के उलेमाओं ने सस्ते लिथोग्राफी प्रेस का इस्तेमाल करते हुए धर्मग्रंथों के उर्दू और फारसी अनुवाद छापने शुरु किये। उन्होंने धार्मिक अखबार और गुटके भी निकाले। देवबंद सेमिनरी की स्थापना 1867 में हुई, जिसने एक मुसलमान के जीवन में सही आचार विचार को लेकर हजारों हजार फतवे छापने शुरु किये।

1810 में कलकत्ता में तुलसीदास द्वारा लिखित रामचरितमानस को छापा गया। 1880 के दशक से लखनऊ के नवल किशोर प्रेस और बम्बई के श्री वेंकटेश्वर प्रेस ने आम बोलचाल की भाषाओं में धार्मिक ग्रंथों को छापना शुरु किया।

प्रकाशन के नये रूप

यूरोप से लेखन की नई विधा उपन्यास का आगमन हो चुका था। उपन्यास अपने पाठकों को एक अलग दुनिया में ले जाती थी। शुरु में यूरोपीय लेखकों के उपन्यास ही भारतीय पाठकों को मिलते थे। वे उपन्यास यूरोपीय परिवेश और संस्कृति पर आधारित होते थे। ऐसे उपन्यासों से अधिकतर पाठक तारतम्य नहीं बिठा पाते थे। समय बीतने के साथ भारतीय परिवेश और संस्कृति पर आधारित उपन्यास लिखे जाने लगे जिनके चरित्रों और भावों को यहाँ के पाठक बेहतर समझ पाते थे। लेखन की नई नई विधाएँ भी सामने आने लगीं; जैसे कि गीत, लघु कहानियाँ, राजनैतिक और सामाजिक मुद्दों पर निबंध, आदि।

उन्नीसवीं सदी के अंत तक एक नई तरह की दृश्य संस्कृति रूप ले रही थी। मुद्रण के द्वारा चित्रों की नकलें भारी संख्या में छपने लगीं। मशहूर चित्रकार राजा रवि वर्मा अपनी पेंटिंग की प्रिंट कॉपी भी निकालने लगे। इससे आम आदमी भी तसवीरें खरीदकर अपने घरों को सजा सकता था।

1870 के दशक में पत्रिकाओं और अखबारों में व्यंग्यचित्र या कार्टून भी छपने लगे जिनके माध्यम से तत्कालीन सामाजिक और राजनैतिक मुद्दों पर कटाक्ष किये जाते थे।

प्रिंट और महिलाएँ

महिलाओं की स्थिति खराब थी और उन्हें कई काम करने की मनाही थी। महिलाओं के जीवन और संवेदनाओं पर कई लेखकों ने लिखना शुरु किया, जिससे मध्यम वर्ग की महिलाओं में पढ़ने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी। कई उदारवादी पुरुषों ने महिला शिक्षा पर बल देना शुरु किया। कुछ उदारवादी पुरुष अपने घर की महिलाओं के लिए घर में शिक्षा की व्यवस्था करवाते थे। रुढ़िवादी हिंदू और मुसलमान स्त्री शिक्षा के धुर विरोधी थे। ऐसे लोगों को लगता था कि शिक्षा से लड़कियों के दिमाग पर बुरा असर पड़ेगा। ऐसे लोग अपनी बेटियों को धार्मिक ग्रंथ पढ़ने की अनुमति तो देते थे लेकिन अन्य साहित्य पढ़ने से मना करते थे।

उर्दू, तमिल, बंगाली और मराठी में प्रिंट संस्कृति का विकास पहले ही हो चुका था, लेकिन हिंदी में ठीक तरीके से प्रिंटिंग की शुरुआत 1870 के दशक में ही हो पाई थी।

प्रिंट और गरीब लोग

उन्नीसवीं सदी में मद्रास के शहरों में सस्ती और छोटी किताबें आ चुकी थीं, जिन्हें चौराहों पर बेचा जाता था ताकि गरीब लोग भी उन्हें खरीद सकें। बीसवीं सदी की शुरुआत से सार्वजनिक पुस्तकालयों की स्थापना के परिणामस्वरूप लोगों तक किताबों की पहुँच बढ़ने लगी। कई अमीर लोग अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने के उद्देश्य से पुस्तकालय बनाने लगे।

प्रिंट और सेंसर

1798 के पहले तक उपनिवेशी शासक सेंसर को लेकर बहुत गंभीर नहीं थे। शुरु में जो भी थोड़े बहुत नियंत्रण लगाये जाते थे वे भारत में रहने वाले उन अंग्रेजों पर लगाये जाते थे जो कम्पनी के कुशासन की आलोचना करते थे।

1857 के विद्रोह के बाद अंग्रेजी शासकों का रवैया बदलने लगा। आइरिस प्रेस ऐक्ट की तर्ज पर भारत में 1878 में वर्नाकुलर प्रेस ऐक्ट पारित किया गया। इस कानून के अनुसार सरकार समाचार और संपादकीय पर सेंसर लगा सकती थी। यदि कोई अखबार सरकार के खिलाफ लिखता तो उसे पहले चेतावनी दी जाती थी। यदि चेतावनी का असर नहीं होता था तो प्रेस को बंद कर दिया जाता था और प्रिंटिंग प्रेस को जब्त कर लिया जाता था।