भारत में उपन्यास का आधुनिक रूप उन्नीसवीं सदी में विकसित हुआ। शुरु में भारतीय लेखकों ने अंग्रेजी उपन्यासों का अनुवाद करना शुरु किया। लेकिन जब इस काम से उन्हें संतुष्टि नहीं मिली तो कई लेखकों ने अपनी भाषा और यहाँ के सामाजिक परिवेश पर उपन्यास लिखना शुरु किया। सबसे पहले उपन्यास बंगाली और मराठी भाषाओं में लिखे गये। मराठी भाषा का पहला उपन्यास बाबा पद्मणजी का यमुना पर्यटन (1857) था। उसके बाद बारी आई लक्ष्मण मोरेसर हालबे के मुक्तमाला (1861) की। उन्नीसवीं सदी में कई उपन्यासकारों ने भारत के आधुनिक साहित्य की रचना करने में बड़ा योगदान दिया। कई उपन्यासों के माध्यम से इस बात की कोशिश हुई की भारत के लोगों में राष्ट्रवादी भावना का संचार हो और लोग अपने आप को उपनिवेशी शासकों से कम न समझें।
भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपनी मंडली के कवियों और लेखकों को अन्य भाषाओं के उपन्यास अनुवाद करने के लिए प्रोत्साहित किया। लेकिन हिंदी का सबसे पहला उपन्यास लिखने का श्रेय दिल्ली के श्रीनिवास दास को जाता है। उस उपन्यास का शीर्षक था परीक्षा गुरु (1882);जिसमें पूरब और पश्चिम की संस्कृति के बीच का द्वंद्व दिखाया गया है। यह उपन्यास कुछ ज्यादा उपदेशकारी होने के कारण पाठको को बहुत नहीं भाई।
देवकी नंदन खत्री ने अपनी रचनाओं से हिंदी पाठकों का दिल जीत लिया। उनकी सबसे अधिक लोकप्रिय किताब थी चंद्रलेखा। इस उपन्यास ने अभिजात वर्ग के बीच हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि को बहुत लोकप्रिय बनाया।
प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं से हिंदी उपन्यास को एक नई ऊँचाई पर पहुँचा दिया। प्रेमचंद पहले उर्दू में लिखते थे लेकिन बाद में हिंदी में लिखने लगे। उनकी रचनाओं पर किस्सागोई की पारंपरिक कला का गहरा असर था। उनकी रचनाओं की सबसे बड़ी विशेषता थी उनकी सरल भाषा। प्रेमचंद ने समाज के हर वर्ग के लोगों का चित्रण किया था।
कुछ बंगाली लेखक ऐतिहासिक विषयों पर लिखते थे तो कई अन्य तत्कालीन मुद्दों पर लिखते थे। बंगाल के नये भद्रलोक के बीच उपन्यास बहुत लोकप्रिय साबित हुए। बंकिमचंद ने दुर्गेशनंदिनी (1865) नामक उपन्यास लिखा था जिसे साहित्यिक परिपक्वता के लिये काफी सराहा गया।
शुरु के बंगाली उपन्यासों में शहरों की बोलचाल की भाषा का इस्तेमाल होता था, लेकिन बाद में आम बोली का भी प्रयोग होने लगा। कुछ उपन्यासों में महिलाओं में प्रचलित बोली; मेयेली का भरपूर इस्तेमाल हुआ था। लेकिन बंकिम की रचना कहीं अधिक अभिजात्य थी जिसमें संस्कृत के शब्दों के अलावा कई बोलियों का भी पुट था। शरत चंद्र चट्टोपाध्याय (1876 – 1938) की सरल भाषा में कहानी बुनने की खूबी के कारण बंगाल के अलावा भारत के अन्य भागों में भी लोकप्रिय थे।
उपन्यास की सार्थकता: उपनिवेशी प्रशासक अक्सर उपन्यासों के माध्यम से भारत के सामजिक ताने बाने को समझने की कोशिश करते थे। अंग्रेजी अफसरों और ईसाई प्रचारकों ने कई भारतीय उपन्यासों का अंग्रेजी में अनुवाद किया था।
कुछ उपन्यासों में सामाजिक कुरीतियों और उनके उपचार के बारे में बताया गया था। कुछ उपन्यासों में इतिहास मुख्य विषय था जिससे लोगों को अपने इतिहास को बेहतर ढ़ंग से समझने में मदद मिलती थी।
उपन्यास की लोकप्रियता समाज के हर वर्ग में थी। इसने भाषा के आधार पर लोगों में साझा पहचान की भावना बनाने में मदद की। उपन्यास के माध्यम से लोग देश के अन्य हिस्सों की संस्कृति भी समझने लगे।
मध्य वर्ग के लोगों के लिए उपन्यास मनोरंजन का लोकप्रिय साधन बन गया। जासूसी और रहस्य से भरपूर उपन्यासों की मांग इतनी थी कि उनका का कई बार मुद्रण करना पड़ता था। कुछ उपन्यास तो बीस से बाइस बार तक पुनर्मुद्रित हुए।
उपन्यास के आने से पहले तक लोगों में बोलकर पढ़ने की आदत थी। उपन्यास के आने के बाद मन ही मन पढ़ने की परिपाटी शुरु हुई। इसकी तुलना हम आज के वाकमैन या हेडफोन वाले म्यूजिक प्लेयर से कर सकते हैं जिसके जरिये आप दूसरे को खलल पहुँचाए बगैर संगीत का आनंद ले सकते हैं।
कुछ लोगों को ऐसा लगता था कि उपन्यास पढ़ने से लोगों के दिमाग पर बुरा असर पड़ सकता है। इसको ध्यान में रखते हुए कुछ लोग महिलाओं और बच्चों को उपन्यास पढ़ने से रोकते थे। कुछ लोग उपन्यास को छुपा कर रखते थे ताकि बच्चे उन्हें न पढ़ पाएँ। कई युवाओं को उपन्यास छुप छुप कर पढ़ना पड़ता था। बूढ़ी औरतें अक्सर अपने नाती पोते की मदद से उपन्यास को सुनने का आनंद लेती थीं।
लेकिन तमाम बंदिशों के बावजूद महिलाएँ भी लेखिका बन गईं और उपन्यास लिखने लगीं। कुछ महिलाएँ छिपकर लिखती थी क्योंकि उनका समाज इसकी इजाजत नहीं देता था।
जाति प्रथा: जातिगत विभाजन और भेदभाव की समस्या हमारे देश में सदियों से है। कई लेखकों ने उपन्यासों के माध्यम से इस समस्या को उजागर किया। कुछ उपन्यासों में ऊँची और नीचि जाति के बीच विवाह से उत्पन्न होने वाले सामाजिक टकराव का चित्रण किया गया है। नीची जाति के कुछ लोग भी मशहूर लेखक बन गये; जैसे केरल के पोथेरी कुंजाम्बु।
बंगाल में मराठा और राजपूतों पर कई ऐतिहासिक उपन्यास लिखे गये, जिनमे राष्ट्र को बहादुरी, रोमांच और बलिदान की भूमि के रूप में चित्रित किया गया है। इन उपन्यासों ने लोगों में राष्ट्रवाद की भावना जागृत करने में काफी मदद की। भूदेव मुखोपाध्याय के उपन्यास अंगुरिया बिनिमोय (1857) में औरंगजेब के खिलाफ शिवाजी के बहादुरी के किस्से हैं। बंकिमचंद की आनंदमठ (1882) में एक गुप्त हिंदू सैन्य संगठन की कहानी है जो मुसलमानों से लड़कर एक हिंदू साम्राज्य की स्थापना करता है।
लेकिन इनमे से कई उपन्यास यह दिखाते हैं राष्ट्र की कुछ लोगों की परिकल्पना में कितनी खामियाँ हो सकती हैं। हम जानते हैं कि भारत किसी एक खास धार्मिक समुदाय का राष्ट्र नहीं हो सकता है।
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