10 इतिहास


साफ सफाई और बीमारियाँ

हनोई शहर के निर्माण में अत्याधुनिक अभियंत्रण और वास्तुकला का इस्तेमाल किया गया था। उपनिवेशी शासकों के लिए बने सुंदर शहर में चौड़ी सड़कें और नालियाँ थीं। लेकिन स्वच्छता के मिसाल के तौर पर बड़ी नालियों में चूहों की जनसंख्या तेजी से बढ़ने लगी। इसका नतीजा यह हुआ कि हनोई शहर में प्लेग की महामारी फैल गई।

चूहों का शिकार

प्लेग जैसी खतरनाक बीमारी की रोकथाम के लिए 1902 में चूहों को पकड़ने की योजना शुरु की गई। इस काम के लिए वियतनाम के मजदूरों को प्रति चूहे की दर से पैसे मिलते थे। लोगों ने हजारों की संख्या में चूहे पकड़ने शुरु किये। चूहा मारने के सबूत के रूप में मजदूरों को चूहे की दुम को दिखाना होता था और उन्हें मजदूरी मिल जाती थी। कई लोगों ने इस मौके का भरपूर फायदा उठाया। लोग चूहों को मारने की बजाय उनकी दुम काटकर ही पैसे कमाने लगे। कुछ लोगों ने तो मोटी कमाई करने के उद्देश्य से चूहों को पालना शुरु कर दिया। यह अनोखा समय था जब शासक वर्ग असहाय हो चुका था और पीड़ित वर्ग मजबूत स्थिति में आ चुका था।

धर्म और उपनिवेश

वियतनाम की धार्मिक मान्यताओं में बुद्ध, कंफ्यूसियस और कई स्थानीय रीतियों का मिश्रण था। फ्रांस से आई मिशनरियों द्वारा वहाँ इसाई धर्म के प्रचार प्रसार की कोशिश की जा रही थी जो स्थानीय लोगों को पसंद नहीं आया। अठारहवीं सदी से ही पश्चिमी मान्यताओं के विरोध में कई धार्मिक आंदोलन शुरु हो चुके थे। इसाई धर्म के खिलाफ होने वाले आंदोलनों का एक उदाहरण है 1868 का स्कॉलर रिवोल्ट

हुइन फू सो

इसी तरह के आंदोलनों में से एक था होआ हाओ, जिसकी शुरुआत 1939 में हुई थी और जो मेकॉन्ग डेल्टा के क्षेत्र में काफी लोकप्रिय हुआ था। इस आंदोलन के जनक का नाम था हुइन फू सो, जो कई तरह के चमत्कार किया करते थे और गरीबों की मदद करते थे। हुइन फू सो अनाप शनाप खर्चे की आलोचना करते थे और बहुत लोकप्रिय थे। उन्होंने कई सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ आंदोलन चलाया; जैसे बाल विवाह, जुआ, शराब और अफीम।

फ्रेच शासकों ने हुइन फू सो के आंदोलन को कुचलने की कोशिश की। हुइन फू सो को पागल करार कर दिया और उसे पागल बोन्ये का नाम दिया गया। उसे एक पागलखाने में डाल दिया गया। लेकिन जो डॉक्टर उसे पागल होने का सर्टिफिकेट देने पहुँचा वही उसका प्रशंसक बन गया। अंत में उसे देशनिकाला देकर लाओस भेज दिया गया। उसके कई अनुयायियों को कॉन्संट्रेशन कैंपों में डाल दिया गया।

फान बोई चाऊ (1867 – 1940)

वे एक ऐसे राष्ट्रवादी थे जिनकी शिक्षा कन्फ्यूशियन पद्धति से हुई थी। उन्होंने 1903 में रिवोल्यूशनरी सोसाइटी (डुई तान होई) का गठन किया। उस सोसाइटी का नेतृत्व प्रिंस कुओंग डे करते थे। फान बोई चाऊ को 1905 में योकोहामा में चीनी सुधारक लिआंग क्वीचाओ (1873 – 1929) से मिलने का मौका मिला। फान द्वारा लिखित सबसे प्रभावशाली किताब थी ‘द हिस्टरी ऑफ लॉस ऑफ वियतनाम’ में क्वीचाओ का गहरा प्रभाव दिखता है। इस किताब में मुख्य रूप से दो मुद्दों पर बात की गई थी, स्वायत्तता का नाश और चीन के साथ टूटे हुए संबंध। वियतनाम की आजादी की लड़ाई में फान की मुख्य भूमिका रही है।

फान शु ट्रिन (1871 – 1926)

यह वैसे शख्स थे जो फान बोई चाऊ के विचारों के सख्त खिलाफ थे। वे राजतंत्र के विरोधी थे। वह फ्रेंच का विरोध करने के लिए कोर्ट की मदद लेने का भी विरोध करते थे। पश्चिम के प्रजातांत्रिक भावनाओं का उनपर गहरा प्रभाव था। वह पश्चिमी लोगों की स्वच्छंदता की भावना के कायल थे। वह इस बात की वकालत करते थे कि फ्रेंच शासक कानूनी और शैक्षिक संस्थाओं का निर्माण करें और कृषि और उद्योग को बढ़ावा दें।

चीन और जापान का प्रभाव

बीसवीं सदी के पहले दशक में वियतनाम से कई छात्र आधुनिक शिक्षा प्राप्त करने के उद्देश्य से जापान गये। जापान जाने के पीछे उनका मकसद था वियतनाम से फ्रेंच शासकों को भगाना, कठपुतली राजा को हटाना और दोबारा एंगुएन वंश के शासन को बहाल करना। एशियाई होने के नाते वे जापान से मदद की अपेक्षा भी रखते थे।

जापान एक आधुनिक और ताकतवर देश बन चुका था। 1907 में जापान की रूस पर फतह के साथ जापान की सैन्य शक्ति साबित हो चुकी थी। अब जापान किसी नये विवाद से दूर रहना चाहता था। इसलिए 1907 में जापान की सरकार ने वियतनाम के छात्रों की क्रांतिकारी गतिविधियों पर अंकुश लगाना शुरु कर दिया। कई क्रांतिकारियों को जापान से निकाल दिया गया, जिन्हें चीन और थाइलैंड में पनाह लेना पड़ा।

चीन में होने वाले बदलावों का प्रभाव भी वियतनाम के राष्ट्रवादियों पर पड़ रहा था। सन यात सेन के नेतृत्व में 1911 में एक लोकप्रिय आंदोलन हुआ था, जिसने लंबे समय से चले आ रहे राजतंत्र को समाप्त किया और लोकतंत्र को बहाल किया था। वियतनाम के छात्रों पर उस घटना का गहरा असर पड़ा था। उन्होंने एसोसियेशन फॉर द रिस्टोरेशन ऑफ वियतनाम (वियत कुआन फुक होई) बनाया। अब लोकतंत्र की स्थापना ही आजादी की लड़ाई का मतलब था।